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{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
विकास के नए उपकरणों को
आदमी इस पृथ्वी पर
जब-जब सजाता है

और अपनी
उपलब्धियों का उत्सव
जब पूरे विश्व में मनाता है

स्वयं आदमी के लिए ही
क्यों इस पृथ्वी का
आकाश सिकुड़ जाता है...