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अगर तुम / योगेंद्र कृष्णा

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|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
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<poem>
अगर तुम थोड़े-से
खाते-अघाते लोगों के बीच
बहुत खुश हो
तो कोई बात नहीं

लेकिन चाहते हो अगर
असंख्य लोगों के बीच
उनके सुख-दुःख
और प्यार में बंट जाना

चाहते हो अगर
उनकी सच्ची अनगढ़
संवेदना में अंट पाना

तो छोड़ना होगा तुम्हें
अपनी यह जिद

जो टिकी है
सब कुछ पा लेने की होड़ में
एक-दूसरे के कांधे चढ़े
आसमान तक
अनहद स्वार्थ की सीढ़ियां बने
रीढ़-विहीन कुछ लोगों के
कंधों और अनाम धंधों पर

मैं जानता हूं
क्यों हर बार
ज़रूरी हो जाता है
तुम्हारा देवता-सा बना रहना

क्यों तुम्हें अच्छा लगता है
थोड़े से कुछ लोगों के
अनाम-बदनाम धंधों और
कमजोर कन्धों पर टिका होना

लेकिन शायद नहीं पता हो तुम्हें
कि अगर तुम उन जर्जरित सीढ़ियों से
कुछ पायदान भी नीचे उतर पाओ
तो दुनिया के असंख्य असली वाशिंदे
तुम्हें देवता से इंसान बना देंगे

बिना कुछ खोए
धरती पर इतना कुछ पा लोगे
कि भूल जाओगे
दैवी चमत्कार की
भाषा में बोलना

भूल जाओगे
रीढ़-विहीन कुछ लोगों
के कंधों पर टिके
अपने सिंहासन पर
हवा के रुख में डोलना