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{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
तुम्हारी देह की तो
मैं नहीं जानता
लेकिन जब भी
सुबह की लालिमा में
पूरा जंगल धीरे धीरे सुलगता है
उसकी ऊष्मा
यहां तक भी पहुंचती है
और मैं तुम्हें
पहाड़ पर चुपके से उतरती
धुंध और बादलों
में भी पा लेता हूं

वर्षों पहले
जिस नदी में
तुम्हारी अस्थियां
बहा आया था
आज उस बर्फीले पानी में भी
जब कभी डुबकियां लगाता हूं
तो एक जादुई सी
गर्म सनसनाहटें
पूरी देह से गुजरती हुई
आत्मा तक पहुंचती है

मकड़ी के उस जाले में
वर्षों बाद भी मैंने
तुम्हारी अंतहीन पीड़ा को
उसी तरह झूलते देखा था
जैसे पहली बार
ठीक तुम्हारी मृत्यु के दिन
तुम्हारी सांस में अटक रही
अपनी ही आत्मा...