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07:35, 30 जनवरी 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
जैसे संगीत ख़त्म होने के बाद भी
देर तक कानों में
गूंजती रह जाती है
उसकी धुन…
जैसे शब्द चुक जाने के बाद भी
देर तक सुलगते रह जाते हैं संदर्भ
और हवा में तैरते हुए
उतर जाते हैं हमारे भीतर
धुंधले कुछेक बिंब...
जैसे वर्षों बाद भी
अंधेरी गलियों में
गूंजती रह जाती है
किसी की बेबसी…
जैसे रह जाते हैं
पेड़ कुछ दिनों तक हरा
जड़ों से कट जाने के बाद भी...
जैसे शेष रह जाती हैं
विराट इस पृथ्वी पर
कुछेक अदम्य इच्छाएं
मृत्यु के बाद भी...
कुछ वैसे ही
उतना ही
फिर भी कहीं बहुत
शेष रह गया हूं मैं
विराट इस पृथ्वी पर...