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{{KKRachna
|रचनाकार=योगेंद्र कृष्णा
|संग्रह=कविता के विरुद्ध / योगेंद्र कृष्णा
}}
<poem>
इस दुनिया को
देखने-परखने की कोशिश में
जहां-जहां गया
छूट गया लौटते समय
थोड़ा-थोड़ा वहां-वहां

अपनों की बात शायद अलग है
लेकिन कितना अजीब होता है
अजनबियों के बीच छूट जाना...

छूटे हुए अपने हिस्से का
मोह भी अजीब है
कि जबतक लौटते हैं
हम उन हिस्सों के पास
खो चुके होते हैं वे
हमारी पहचान
जा चुके होते हैं
हमारी पहुंच से बहुत दूर...

फिर कितना कठिन है
अजनबी होती इस दुनिया में
अपने ही हिस्से की शिनाख्त...

लेकिन परायी इस दुनिया को
समझने-परखने के लिए
कितना जरूरी है
किस्तों में ही सही
खो देना अपनी पहचान...