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18:13, 19 मई 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रति सक्सेना
}}
'''1
थरथराते क़दम
बढे़ भविष्य की ओर
पाँव रगड़ा, फिसल पड़ी वह
भूत में, लगी किलकने
देखा पेड़ बात कर रहे हैं
बतियाने लगी
टहनियों-पंत्तियों से
नीम की, नाना के आंगन में
वापस लाई मैं उसे, ज़ोर-ज़बरदस्ती कर
नारियल दरख़्तों की ऊँचाई में कि
रूठ गई
जा पहुँची दौड़
मामा की बरैठी में
खोजने लगी वे सारें पते
स्याही मिट चली थी जिनकी
खींच-खींच कर लाती हूँ
बन जाती है वह
नन्हीं बच्ची बार-बार
अल्जाइमर की दलदल में
फँसती हुई
माँ।
'''2
अब मेरी बारी है
मैं बनाऊँगी तुम्हारी चुटिया
तुमने खींच दिए न
मेरे सारे बाल
चुपड़ दिया तेल
झरे पके बालों पर हाथ फिराती
प्रौढ़ा बनी बच्ची सोच रही है
कब चिड़चिड़ाती बच्ची
जवान हुई, कब माँ बूढ़ी
बन गई बच्ची।
'''3
परेशान है वह आजकल
स्मृतियों के झगड़ों से
अभी जो घटा
पुंछ गया
पीछे से चला आया
स्मृतियों का सिलसिला
भूल रही है
चलते शब्दों का अर्थ
घुसपैठ कर रही हैं
किस्सागोइयाँ
सो रही थीं जो
कभी छींके में चढ़ कर।
'''4
बिस्तरा गीला कर
तकिए से छिपाती हुई वह
देखती है चोरी-चोरी
फटकार खा भी
खिलाती हँसी की कली
होठों के कोने में तैरती
शैतानी,
ओफ़
यह माँ है कि
अल्हड़ बच्ची।
'''5
आजकल बात करते हैं
सभी, उससे
कुर्सी मेज़ या फिर संदूक
चले आते हैं उसके कमरे में
बेधड़क, बंदर-कुत्ते शेर-चीते
मक्खियों से खेलती
चीटियाँ नाचती
न जाने कब और कैसे
माँ बन गई
उन सब की सखी
सयानों को नहीं दीखते कभी।
कटती पतंग-सी
हाथ से खिसक रही है
माँ, अल्जाइमर की दलदल में फँसी।