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बारमोॅ अध्याय / गीता / कणीक

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समदर्शी रहै सब प्राणी केॅ, मित्रता दया दै जानी केॅ
सुख दुःख आरो क्षमा केॅ सम राखै, निर्मम(<ref>मालिकपनोॅ से दूर, ॅपजी छव ेमदेम व िचतवचतपमजवतेीपच) </ref> निरहंकारोॅ जांचै॥13॥
सन्तुष्ट सतत जे भक्ति करै, दृढ़ निश्चय, यतात्मा( म्दकमंअवतपदह) केॅ ही बरै
जेकरा मन बुद्धि में भक्ति धरम, हौ प्राणी हमरोॅ अति प्रियतम॥14॥
शत्रु-मित्रोॅ में फरक नहीं, अपमान मान में फरक नहीं
सम संग-विवर्जित(संगविवर्जित=<ref>वगैर केखर्हौ संग के, थ्तमम तिवउ ंसस ंेेवबपंजपवद) </ref> जेकरोॅ मन, सुख दुःख में रहै या शीत-उष्ण॥18॥
निन्दा-स्तुति में मौन पुरूष, थोड़है में जे सन्तुष्ट पुरूष
हौ भक्त ठो हमरोॅ अतिप्रिय छै॥20॥
</poem>
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