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|रचनाकार=तुलसीदास
|संग्रह=रामचरितमानस / तुलसीदास
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<poem>
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥
छं0-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥
सो0-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥
<br>चौ०-बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥<br>खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥१॥ <br>संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥<br>अस संसय मन भयउ अपारा। होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥२॥<br>जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥<br>सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥३॥<br>जासु कथा कुभंज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥<br>सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥४॥<br>छं०-मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।<br>कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥<br>सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।<br>अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि॥<br>सो०-लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।<br>बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥५१॥<br><br>चौ०-जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥<br>तब लगि बैठ अहउँ बटछाहिं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥१॥पाही॥<br>जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥<br>चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बिचारु करौं का भाई॥२॥भाई॥<br>इहाँ संभु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥<br>मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिधी बिपरीत भलाई नाहीं॥३॥नाहीं॥<br>होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥<br>अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती जहँ प्रभु सुखधामा॥४॥सुखधामा॥<br>दो०दो0-पुनि पुनि हृदयँ विचारु करि धरि सीता कर रुप।<br>आगें होइ चलि पंथ तेहि जेहिं आवत नरभूप॥५२॥नरभूप॥52॥<br><br>चौ०-लछिमन दीख उमाकृत बेषा। बेषा चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥<br>कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥१॥मतिधीरा॥<br>सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥<br>सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥२॥भगवाना॥<br>सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥<br>निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥३॥बानी॥<br>जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥<br>कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥४॥हेतू॥<br>दो०दो0-राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।<br>सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥५३॥सोचु॥53॥<br><br>चौ०-मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥<br>जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥१॥दाहा॥<br>जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥<br>सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥२॥भ्राता॥<br>फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बंधु सिय सुंदर वेषा॥<br>जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥३॥प्रबीना॥<br>देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥<br>बंदत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥४॥देवा॥<br>दो०दो0-सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।<br>जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥५४॥अनुरूप॥54॥<br><br>चौ०-देखे जहँ तहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥<br>जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥१॥प्रकारा॥<br>पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥<br>अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥२॥घनेरे॥<br>सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भई सभीता॥<br>हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥३॥माहीं॥<br>बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥<br>पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥४॥गिरीसा॥<br>दो०दो0-गई समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।<br>लीन्हि लीन्ही परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥५५॥बात॥55॥<br>'''मासपारायण, दूसरा विश्राम'''<br><br>चौ०-सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥<br>कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥१॥नाई॥<br>जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥<br>तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥२॥सब जाना॥<br>बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥<br>हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥३॥सुजाना॥<br>सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥<br>जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥४॥अनीती॥<br>दो०दो0-परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।<br>प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥५६॥संतापु॥56॥<br><br>चौ०-तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥<br>एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥१॥माहीं॥<br>अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥<br>चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥२॥दृढ़ाई॥<br>अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥<br>सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥३॥सकोचा॥<br>कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥<br>जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥४॥आराती॥<br>दो०दो0-सतीं हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।<br>कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥५७क॥अग्य॥57क॥<br>सो०सो0-जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।<br>बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥५७ख॥पुनि॥57ख॥<br><br>चौ०-हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहि बरनी॥<br>कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥१॥अपराधा॥<br>संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥<br>निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥२॥अधिकाई॥<br>सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥<br>बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥३॥कैलासा॥<br>तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥<br>संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥४॥अपारा॥<br>दो०दो0-सती बसहि कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।<br>मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥५८॥सिराहिं॥58॥<br><br>चौ०-नित नव सोचु सतीं उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥<br>मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु पुनिपति बचनु मृषा करि जाना॥१॥जाना॥<br>सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥<br>अब बिधि अस बूझिअ नहिं नहि तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥२॥मोही॥<br>कहि न जाई कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि रामाहि सुमिर सयानी॥<br>जौं जौ प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति आरती हरन बेद जसु गावा॥३॥गावा॥<br>तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥<br>जौं मोरे सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥४॥एहू॥<br>दो०दो0- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।<br>होइ मरनु जेहि जेही बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥५९॥बिहाइ॥59॥<br><br>चौ०-एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥<br>बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥१॥अबिनासी॥<br>राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥<br>जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा। कीन्ही। सनमुख संकर आसनु दीन्हा॥२॥दीन्हा॥<br>लगे कहन हरिकथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥<br>देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥३॥नायक॥<br>बड़ अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिमानु हृदयँ तब आवा॥<br>नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥४॥नाहीं॥<br>दो०दो0- दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।<br>नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥६०॥भाग॥60॥<br><br>चौ०-किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥<br>बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥१॥बनाई॥<br>सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुंदर बिधि नाना॥<br>सुर सुंदरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥२॥ध्याना॥<br>पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥<br>जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु कुछ दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥३॥एहीं॥<br>पति परित्याग हृदयँ हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥<br>बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी॥४॥सानी॥<br>दो०दो0-पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।<br>तौ मै जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥६१॥सोइ॥61॥<br><br>चौ०-कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥<br>दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। बोलाई। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥१॥बिसराई॥<br>ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥<br>जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥२॥कानी॥<br>जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥<br>तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥३॥होई॥<br>भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥<br>कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥४॥भाएँ॥<br>दो०दो0-कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।<br>दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥६२॥त्रिपुरारि॥62॥<br><br>चौ०-पिता भवन जब गई भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥<br>सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥१॥मुसुकाता॥<br>दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥<br>सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥२॥भागा॥<br>तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥<br>पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥३॥परितापा॥<br>जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥<br>समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥४॥प्रबोधा॥<br>दो०दो0-सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।<br>सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥६३॥सक्रोध॥63॥<br><br>चौ०-सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥<br>सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥१॥पिताहूँ॥<br>संत संभु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥<br>काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥२॥पराई॥<br>जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥<br>पिता मंदमति निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही॥३॥देही॥<br>तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू॥<br>अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥४॥हाहाकारा॥<br>दो०दो0-सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस।<br>जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥६४॥मुनीस॥64॥<br><br>चौ०-समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥<br>जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥१॥दीन्हा॥<br>भे जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई॥<br>यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संक्षेप बखानी॥२॥संछेप बखानी॥<br>सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥<br>तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥३॥पाई॥<br>जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाई॥<br>जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥४॥दीन्हे॥<br>दो०दो0-सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति। <br>प्रगटीं सुंदर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥६५॥भाँति॥65॥<br><br>चौ०-सरिता सब पुनीत पुनित जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥<br>सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहि अनुरागा॥१॥करहिं अनुरागा॥<br>सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥<br>नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥२॥जासू॥<br>नारद समाचार सब पाए। कौतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥<br>सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥३॥दीन्हा॥<br>नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिंचावा॥<br>निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥४॥चरना॥<br>दो०दो0-त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि॥<br>कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥६६॥बिचारि॥66॥<br><br>चौ०-कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥<br>सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥१॥भवानी॥<br>सब लच्छन संपन्न कुमारी। होइहि संतत पियहि पिआरी॥<br>सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥२॥माता॥<br>होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥<br>एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़हहिँ पतिब्रत असिधारा॥३॥असिधारा॥<br>सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥<br>अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥४॥छीना॥<br>दो०दो0-जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष॥<br>अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥६७॥रेख॥67॥<br><br>चौ०-सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥<br>नारदहुँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥१॥बिलगाना॥<br>सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥<br>होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥२॥राखा॥<br>उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू॥<br>जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥३॥जाई॥<br>झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहि दंपति सखीं सयानी॥<br>उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥४॥उपाऊ॥<br>दो०दो0-कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार।<br>देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥६८॥मेटनिहार॥68॥<br><br>चौ०-तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥<br>जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलहि उमहि तस संसय नाहीं॥१॥नाहीं॥<br>जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहि मैं अनुमाने॥<br>जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥२॥कोई॥<br>जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥<br>भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मंद कहत कोउ नाहीं॥३॥नाहीं॥<br>सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥<br>समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥४॥नाई॥<br>दो०दो0-जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ि बिबेक अभिमान।<br>परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥६९॥समान॥69॥<br><br>चौ०-सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥<br>सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥१॥तैसें॥<br>संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥<br>दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥२॥कलेसू॥<br>जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥<br>जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥३॥नाहीं॥<br>बर दायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन॥<br>इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। अवराधे। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥४॥साधें॥<br>दो०दो0-अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।<br>होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥७०॥गिरीस॥70॥<br><br>चौ०-कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥<br>पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥१॥बैना॥<br>जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरुपा॥<br>न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्रानपिआरी॥२॥प्रानपिआरी॥<br>जौं न मिलहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहि सबु लोगू॥<br>सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥३॥दाहू॥<br>अस कहि परी परि चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥<br>बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥४॥नाहीं॥<br>दो०दो0-प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।<br>पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥७१॥कल्यान॥71॥<br><br>चौ०-अब जौ तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावन देहू॥<br>करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहि कलेसू॥१॥कलेसू॥<br>नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुंदर सब गुन निधि बृषकेतू॥<br>अस बिचारि तुम्ह तजहु असंका। सबहि भाँति संकरु अकलंका॥२॥अकलंका॥<br>सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥<br>उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥३॥बैठारी॥<br>बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कंठ न कछु कहि जाई॥<br>जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥४॥बानी॥<br>दो०दो0-सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।<br>सुंदर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥७२॥मोहि॥72॥<br><br>चौ०-करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥<br>मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥१॥नसावा॥<br>तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥२॥महिभारा॥<br>तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥<br>सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥३॥हँकारी॥<br>मातु पितुहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥<br>प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥४॥बाता॥<br>दो०दो0-बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ॥<br>पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥७३॥पाइ॥73॥<br><br>चौ०-उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥<br>अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥१॥भोगू॥<br>नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥<br>संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥२॥गवाँए॥<br>कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥<br>बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोई खाई॥३॥खाई॥<br>पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नाम तब भयउ अपरना॥<br>देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा ॥४॥गभीरा॥<br>दो०दो0-भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।गिरिजाकुमारि।<br>परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥७४॥त्रिपुरारि॥74॥<br><br>चौ०-अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए भउ अनेक धीर मुनि ग्यानी॥<br>अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥१॥जानी॥<br>आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥<br>मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥२॥बागीसा॥<br>सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥<br>उमा चरित सुंदर मैं गावा। सुनहु संभु कर चरित सुहावा॥३॥सुहावा॥<br>जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब तें सें सिव मन भयउ बिरागा॥<br>जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥४॥ग्रामा॥<br>दो०दो0-चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।<br>बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥७५॥अभिराम॥75॥<br><br>चौ०-कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥<br>जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥१॥सुजाना॥<br>एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥<br>नेमु नैमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥२॥रेखा॥<br>प्रगटे प्रगटै रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥<br>बहु प्रकार संकरहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥३॥निरबाहा॥<br>बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥<br>अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥४॥बरनी॥<br>दो०दो0-अब बिनती मम सुनेहु सिव जौं मो पर निज नेहु।<br>जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥७६॥देहु॥76॥<br><br>चौ०-कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥<br>सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥१॥हमारा॥<br>मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥<br>तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥२॥तुम्हारी॥<br>प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥<br>कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥३॥कहेऊ॥<br>अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरति उर राखी॥<br>तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥४॥सुहाए॥<br>दो०दो0-पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।<br>गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥७७॥संदेहु॥77॥<br><br>चौ०-रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥<br>बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥१॥भारी॥<br>केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥<br>कहत बचत मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥२॥जड़ताई॥<br>मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥<br>नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥३॥उड़ाना॥<br>देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥४॥भरतारा॥<br>दो०दो0-सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव तब देह।<br>नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥७८॥गेह॥78॥<br><br>चौ०-दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥<br>चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥१॥हाला॥<br>नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥<br>मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥२॥कीन्हा॥<br>तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥<br>निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥३॥ब्याली॥<br>कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥<br>पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥४॥ताही॥<br>दो०दो0-अब सुख सोवत सोचु नहिं नहि भीख मागि भव खाहिं।<br>सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥७९॥खटाहिं॥79॥<br><br>चौ०-अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥<br>अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥१॥लीला॥<br>दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥<br>अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥२॥भवानी॥<br>सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥<br>कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥३॥सोई॥<br>नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरऊँ॥<br>गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥४॥तेही॥<br>दो०दो0-महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।<br>जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥८०॥काम॥80॥<br><br>चौ०-जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥<br>अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥१॥बिचारा॥<br>जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥<br>तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥२॥माहीं॥<br>जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥<br>तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू॥३॥महेसू॥<br>मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥<br>देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥४॥भवानी॥<br>दो०दो0-तुम्ह माया भगवान सिव सकल जगत पितु मातु।<br>नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥८१॥गातु॥81॥<br><br>चौ०-जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥<br>बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥१॥सुनाई॥<br>भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥<br>मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥२॥ध्याना॥<br>तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥<br>तेंहि सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥३॥रीते॥<br>अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥<br>तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥४॥दुखारे॥<br>दो०दो0-सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।<br>संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥८२॥सोइ॥82॥<br><br>चौ०-मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥<br>सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥१॥गेहा॥<br>तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥<br>जदपि अहइ असमंजस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥२॥हमारी॥<br>पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं॥<br>तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥३॥बरिआई॥<br>एहि बिधि भलेहि देवहित होई। मर अति नीक कहइ सबु कोई॥<br>अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥४॥झषकेतू॥<br>दो०दो0-सुरन्ह कहीं निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।<br>संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥८३॥मार॥83॥<br><br>चौ०-तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥<br>पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥१॥तेही॥<br>अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥<br>चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा॥२॥हमारा॥<br>तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥<br>कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥३॥सेतू॥<br>ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥<br>सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥४॥भागा॥<br>छं०छं0-भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।<br>सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥<br>होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।<br>दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥<br>दो०दो0-जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।<br>ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥८४॥काम॥84॥<br><br>चौ०-सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥<br>नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। धाई। संगम करहिं तलाव तलाईं॥१॥तलाई॥<br>जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥<br>पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥२॥बिसारी॥<br>मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसिदिनु निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥<br>देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥३॥बेताला॥<br>इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥<br>सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥४॥बियोगी॥<br>छं०छं0-भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।<br>देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥<br>अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।<br>दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥<br>सो०सो0-धरी न काहूँ धीर धिर सबके मन मनसिज हरे।<br>जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥८५॥महुँ॥85॥<br><br>उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥<br>सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥१॥संसारू॥<br>भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥<br>रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥२॥भगवाना॥<br>फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥<br>प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥३॥बिराजा॥<br>बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥<br>जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥४॥जागा॥<br>छं०छं0-जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।<br>सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही॥<br>बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा।<br>कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा॥<br>दो०दो0-सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।<br>चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥८६॥हृदयनिकेत॥86॥<br><br>चौ०-देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥<br>सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥१॥ताने॥<br>छाड़े बिषम बिसिख उर लागे। छूटि छुटि समाधि संभु तब जागे॥<br>भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥२॥देखी॥<br>सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका॥<br>तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा॥३॥छारा॥<br>हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥<br>समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥४॥जोगी॥<br>छं०छं0-जोगी जोगि अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।<br>रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई।<br>अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।<br>प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥<br>दो०दो0-अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु।<br>बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु॥८७॥प्रसंगु॥87॥<br><br>चौ०-जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥<br>कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥१॥मोरा॥<br>रति गवनी सुनि संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥<br>देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए॥२॥सिधाए॥<br>सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥<br>पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥३॥अवतंसा॥<br>बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥<br>कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥४॥स्वामी॥<br>दो०दो0-सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।<br>निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥बिबाहु॥88॥<br><br>चौ०-यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन।<br>कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा॥१॥कीन्हा॥<br>सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥<br>पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा॥२॥अंगीकारा॥<br>सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥<br>तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥३॥साई॥<br>अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥<br>प्रथम गए जहँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥४॥सानी॥<br>दो०दो0-कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस।<br>अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥८९॥महेस॥89॥ <br>'''मासपारायण,तीसरा विश्राम'''<br><br>चौ०-सुनि बोलीं मुसकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥<br>तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥१॥सबिकारा॥<br>हमरें जान सदा सिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥<br>जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥२॥बानी॥<br>तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥<br>तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा॥३॥तुम्हारा॥<br>तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥<br>गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥४॥नाई॥<br>दो०दो0-हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास॥<br>चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥९०॥पास॥90॥<br><br>चौ०-सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥<br>बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥१॥माना॥<br>हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई॥<br>सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥२॥धराई॥<br>पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥<br>जाइ बिधिहि दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥३॥समाती॥<br>लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥<br>सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे॥४॥साजे॥<br>दो०दो0-लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।<br>होहिं होहि सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥गान॥91॥<br> <br><br>सिवहि संभुगन संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥<br>कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥१॥छाला॥<br>ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥<br>गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥२॥कृपाला॥<br>कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥<br>देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥३॥नाहीं॥<br>बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता। चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता॥<br>सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥४॥अनुरूपा॥<br>दो०दो0-बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।<br>बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥९२॥समाज॥92॥<br><br>चौ०-बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥<br>बिष्नु बचन सुनि सुर मुसकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥१॥बिलगाने॥<br>मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं॥<br>अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥२॥टेरे॥<br>सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥<br>नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥॥३॥देखा॥<br>कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥<br>बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥४॥तनखीना॥<br>छं०छं0-तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।<br>भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥<br>खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।<br>बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥<br>सो०सो0-नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब।<br>देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥९३॥बिधि॥93॥ <br>जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥<br>इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥१॥बखाना॥<br>सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥<br>बन सागर सब नदीं तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥२॥पठावा॥<br>कामरूप सुंदर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥<br>गए सकल तुहिनाचल गेहा। गावहिं मंगल सहित सनेहा॥॥३॥सनेहा॥<br>प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥<br>पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरंचि निपुनाई॥४॥निपुनाई॥<br>छं०छं0-लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।<br>बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही॥<br>मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं॥<br>बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥<br>दो०दो0-जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।<br>रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥९४॥अधिकाइ॥94॥<br><br>चौ०-नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥<br>करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥१॥अगवाना॥<br>हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥<br>सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥२॥भागे॥<br>धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥<br>गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कंपित गाता॥॥३॥गाता॥<br>कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥<br>बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥४॥छारा॥<br>छं०छं0-तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।<br>सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥<br>जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।<br>देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥<br>दो०दो0-समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।<br>बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥९५॥नाहिं॥95॥<br><br>चौ०-लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥<br>मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥नारी॥<br>कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥<br>बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥२॥बिसेषा॥<br>भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥<br>मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी॥३॥गिरीसकुमारी॥<br>अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥<br>जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा॥४॥कीन्हा॥<br>छं०छं0- कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।<br>जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥<br>तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं॥<br>घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥<br>दो०दो0-भईं भई बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।<br>करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥९६॥सँभारि॥96॥<br><br>चौ०-नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥<br>अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा॥१॥कीन्हा॥<br>साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥<br>पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कै पीरा॥२॥कैं पीरा॥<br>जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥<br>अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥३॥बिधाता॥<br>करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥<br>तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका॥४॥कलंका॥<br>छं०छं0-जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं।<br>दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥<br>सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं॥<br>बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥<br>दो०दो0-तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।<br>समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥९७॥निकेत॥97॥<br><br>चौ०-तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा॥<br>मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥१॥भवानी॥<br>अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि॥<br>जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥२॥धारिनि॥<br>जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई॥<br>तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥३॥माहीं॥<br>एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा॥<br>भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥४॥लीन्हा॥<br>छं०छं0-सिय बेषु सती जो कीन्ह तेहि अपराध संकर परिहरीं।<br>हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥<br>अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।<br>अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकर प्रिया॥<br>दो०दो0-सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।<br>छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद॥९८॥संबाद॥98॥<br><br>चौ०-तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥<br>नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥१॥हरषाने॥<br>लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना॥<br>भाँति अनेक भई जेवनारा। जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥२॥ब्यवहारा॥<br>सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥<br>सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती॥३॥जाती॥<br>बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥<br>नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥४॥बानी॥<br>छं०छं0-गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं।<br>भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥<br>जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।<br>अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥<br>दो०दो0-बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ।<br>समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥९९॥बोलाइ॥99॥<br><br>चौ०-बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥<br>बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥१॥नारी॥<br>सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा॥<br>बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥२॥रघुराई॥<br>बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई॥<br>देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥३॥है॥<br>जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥<br>सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥४॥बखानी॥<br>छं०छं0-कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।<br>सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा॥<br>छबिखानि मातु भवानि गवनी मध्य मंडप सिव जहाँ॥<br>अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥<br>दो०दो0-मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि। <br><br>कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥जानि॥100॥</poem>