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बाँगर और खादर / अज्ञेय

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|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=अरी ओ करुणा प्रभामय / अज्ञेय
 
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<poem>
बाँगर में
राजाजी का बाग है,
चारों ओर दीवार है
जिस में एक ओर द्वार है,
बीच-बाग़ कुआँ है
:::बहुत-बहुत गहरा।
और उस का जल
मीठा, निर्मल, शीतल।
कुएँ तो राजाजी के और भी हैं
-एक चौगान में, एक बाज़ार में-
:::पर इस पर रहता है पहरा।
खादर में
राजाजी के पुरवे हैं,
मिट्टी के घरवे हैं,
आगे खुली रेती के पार
:::सदानीरा नदी है।
गाँव के गँवार
उसी में नहाते हैं,
कपड़े फींचते हैं,
आचमन करते हैं,
डाँगर भँसाते हैं,
उसी से पानी उलीच
पहलेज सींचते हैं,
और जो मर जायें उन की मिट्टी भी
:::वहीं होनी बदी है।
कुएँ का पानी
राजाजी मँगाते हैं,
:::शौक़ से पीते हैं।
नदी पर लोग सब जाते हैं,
उस के किनारे मरते हैं
:::उसके सहारे जीते हैं।
बाँगर का कुआँ
राजाजी का अपना है
लोक-जन के लिए एक
कहानी है, सपना है
खादर की नदी नहीं
किसी की बपौती की,
पुरवे के हर घरवे को
गंगा है अपनी कठौती की।
बाँगर में<br>राजाजी का बाग है'''नयी दिल्ली,<br>चारों ओर दीवार है<br>जिस में एक ओर द्वार है1 दिसम्बर,<br>1958'''बीच-बाग़ कुआँ है<br/poem>:::बहुत-बहुत गहरा।<br>और उस का जल<br>मीठा, निर्मल, शीतल।<br>कुएँ तो राजाजी के और भी हैं<br>-एक चौगान में, एक बाज़ार में-<br>:::पर इस पर रहता है पहरा।<br><br>खादर में<br>राजाजी के पुरवे हैं,<br>मिट्टी के घरवे हैं,<br>आगे खुली रेती के पार<br>:::सदानीरा नदी है।<br>गाँव के गँवार<br>उसी में नहाते हैं,<br>कपड़े फींचते हैं,<br>आचमन करते हैं,<br>डाँगर भँसाते हैं,<br>उसी से पानी उलीच<br>पहलेज सींचते हैं,<br>और जो मर जायें उन की मिट्टी भी<br>:::वहीं होनी बदी है।<br><br>कुएँ का पानी<br>राजाजी मँगाते हैं,<br>:::शौक़ से पीते हैं।<br>नदी पर लोग सब जाते हैं,<br>उस के किनारे मरते हैं<br>:::उसके सहारे जीते हैं।<br><br>बाँगर का कुआँ<br>राजाजी का अपना है<br>लोक-जन के लिए एक<br>कहानी है, सपना है<br><br>खादर की नदी नहीं<br>किसी की बपौती की,<br>पुरवे के हर घरवे को<br>गंगा है अपनी कठौती की।
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