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दरख़्त मेरे हिस्से की शुष्क शाखाओं से कतरा भर धूप बेसुध-बेबस वो भीलटकी रहती हैंमित्र छीन ले गया बूढ़ी दादी,आत्मीय सहयात्री इस उम्मीद में हितैषी मेरा था किजो पहलेकोई तो एक प्रहर वहाँ से गुजरेगा,उनको देखकर पसीजेगा।हाथ बढ़ाकर तन्हाई की कील से नीचे उतारेगा।धूर्त अकुलीन हो गया
आँगन समन्दर के किनारे पर बासी अँधेरे कोने में खड़ी मैंगुमसुम तन्हा विक्षोभित लहरों कोअटकी रहती हैं बूढ़ी दादी,इस उम्मीद में किकोई तो एक प्रहरउन्हें अपने हाथों मायूसी से स्नेह की रोटी परोसेगा आदर से पुकारेगा।बड़े चाव से खाना वह खाएगीदेखती हूँऔर, सुकून भरी सोच में मीठी नींद ले पायेंगी।पड़ जाती हूँ मैं
बूढ़ी दादी का मन कि:व्यथित था-देखकर अपनों का दोगलापनअपने बच्चों का सौतेलापन,बच्चों ने सफलता के शिखर परसारी संपत्ति छीनकरपहुँची तो सहीसड़कों पर भटकने को छोड़ दिया,इतनी ऊँचाई से मकान में अपनों ने उनसे रहने वालों के दिल भी मुँह मोड़ लिया।दरिद्र हो गये
हजार अटकलें आयीं मगर....रिश्तों का मर्म समझना ऐसा दिन कभी वाक़ई आसान काम नहीं आयावह तूफानों से जूझती रहींबस न खोया, न कुछ पाया। दिनस्नेह-प्रतिदिन, नेत्रों में विश्वास नहींनैराश्य के कुहासे से घिरती गयी।सन्धि की कोई आस नहींसूख चुका था, मेरे ही अन्तःस्थित संवेदन उनकी आँखों का पानी।मुझपर ही फिर उस दिन...बगीचे में,गरजते हैंएक अनाथ लड़की ने बरसते हैंबूढ़ी दादी कोकड़कते हैं’दादी जी’ कहकर पुकाराकहते हैं कि, बूढ़ी दादी ने भी लड़की को प्यार से दुलारा। एक वही सुबहअब यह...मित्र जीवन में उजियारा लेकर आयी थी,बूढ़ी दादी का मन हर्षायाचलो- किसी ने तो ’दादी जी’ बुलाया।कम मौलिक रूप से कम जीते जी ’दादी जी’ तो कहलायी।बिना एक क्षण गँवाये बूढ़ी दादी ने लड़की का हाथ ममता से थाम लियापति के स्वर्ग सिधारने के बादअपने बच्चों के दुत्कारने के बाद आखिर में- बूढ़ी दादी को तुम्हारे होकर भी, एक रिश्ता अपनेपन का मिला,जिसने सूनेपन की उधड़ी चादर कोअधिकारों से सिला।तुम्हारे नहीं।
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