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न अन्न / रामनरेश पाठक

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<poem>न अन्न, न वस्त्र, न घर,
लहलहाती घाम, चिलचिलाती लू,
सारा गाँव जल कर रख हो गया.

ज़िन्दगी सो गयी,
इंसान की खुशियों पर गर्म ख़ाक छा गयी,
आग के समंदर में इंसानीयत की नाव डूब गयी,
माँगे धुलीं, कोख भुने,
सारा कुनबा राख हो गया

सांझ की छाँव तले, गुलाब भरी घाटी में,
किसी हत्यारे ने एटम बम की परीक्षा ली,
अजल की बेटी शोख आदाब बजा गयी,
अमन के फरिश्तों ने दम तोड़ दिया,
तुनुक डालियों पर पावक प्रसूनों के घर सज गए,
एक जहरीली गैस हलक के नीचे उतर गयी
फूस, खर और पात के ये कुटीर
फिर गीतों में झूमेंगे,
इंसान अपना घर फिर गढ़ेगा
अभी इंसान जीता है, इंसानियत जीती है
इंसान का हक जीता है,
इंसानी मिहनत और हिकमत के समंदरकी सुकून

चिल्लाती है कि उसकी रवानी, उसकी मौजें जागती हैं,
चाँद फिर हंसेगा, इंसान का घर फिर बसेगा,
मगर सुनी मांगों की लाली नहीं लौटेगी,
न कोख में ममत्व हंसेगा
क्यूंकि दूध पूत दोनों लजा गए.
</poem>
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