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{{KKRachna
|रचनाकार=नरेश मेहन
|अनुवादक=
|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
बेधड़कै-बेखड़कै
सरेआम
चौगड़दे
भंवैं झूठ।

म्हैं देख्यो है
जनां-कणां
थाणां-दफ्तरां
न्याव रै काठ गोळै में
ऊभ्यो झूठ।

कई बार तो
संसद ताईं ढूक जावै
धोळा गाभा पै‘र
काळियो झूठ
धोळो बण।

सांच बापड़ो
घर में
इण डर में
पड़्यो है मून
जळेबी गूंथ
गोखै गोखड़ै सूं बारै।

म्है सोचूं
सड़क माथै
कद आसी
बेधड़कै-बेखड़कै
सरेआम
चौगड़दे सांच।
</poem>
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