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अणमणो पानको / नरेश मेहन

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|रचनाकार=नरेश मेहन
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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
दूर सूं उड़तो
एक अणमणो पानको
आय परो
म्हारा खांधां माथै बैठग्यो
म्हैं पूछ्यो -
कठै सूं आयो भाया
इण भांत अणमणो सो ?

बो गळगळो होग्यो
निरास होय बोल्यो
सै‘र सूं आयो हूं
डाळी सूं अळगो होय
नीं चांवतां थकां
रूंख सूं बिछड़ परो।

सै‘र मैं
अब म्हारो जीव नीं लागै
दम घुटै
धुंएं में ऊभ्यै रूंख माथै
चीड़ी-कीड़ी
कोयल-कागला
कोई नीं रैवै
म्हैं कियां रैऊं ?

म्हनै
म्हारा भाई
आप रै खांधां बिठा
आप रै साथै राख
ले चाल
सै‘र सूं दूर
किणी नदी री पाळ
किणीं खेत में
धोरां री रेत में
चावै छोटै सै गांव में
म्हनै ले चाल, बस।
</poem>
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