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03:15, 14 जून 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मनोज देपावत
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|संग्रह=थार-सप्तक-3 / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<poem>
हूँ कदै ही नीं समझ्यो
छोरियां परायो धन हुवै
ईं‘रो कांई मतलब हुवै
कांई बै अडांणे मैल्योड़ी हुवै
या मांग अर ल्यायोड़ी हुवै
पण जद पाछलै साल
घर मैं ब्याव री विगत आई
साल-छह मईनां री
भाजा-दौड़ी पछै
भाण री खातर रिस्तो लाध्यो
बूडिया-बडेरा री हाथाजोड़ी पछै
टीकै री बात
इकोत्तर हजार माथै सल्टी
पछै सरू हुई
अणमिणती री भाजादोड़ी
सोनै रा भाव सुणता ई
हाथां रा तोता उड़ग्या
पण बा तो
दादीसा री मां ने देयोड़ी
अर मां री आपरी बिनणी सारू
संभाळ अर राख्योड़ी
रखड़ी अर गळसरी दिखाई
जद सांस में सांस आई
रीजपच अर थोड़ो‘क और घड़ायो
कूलर, सोफो, फरीज, मसीन री
दुकानां माथै
भाव सुणता ही पसीना छूटता
घूमता-घूमता री चप्पलां घिसगी
जद तोड़-तोड़
दायजै रो सामान बापरयो
तो थोड़ा नचेता हुया
बळद नैं सिंझ्या चरण छोड्यो है
बियाव री तारीख सिर माथै ही
कपड़ां री दुकानां माथै जाणैं
सारा भिड़क्योड़ा ही बैठा है
लूटण रै वास्तै
नान-चून अर लेवण-देवण रा बेस
गिणाया जद लाग्यो
जाणैं छोरैआळा
आपरै घरे सोरूम खोलेला
कदी ढोली...कदी नाई
कदी दरजी.....कदी हलवाई
जाणै सारी दुनियां री आज म्हानै ई
जरूरत है ? म्हारी किन्नै ई कोनी !
ब्याव रो दिन आग्यो
सारा इंतजाम पूरा होग्या
लुगायां रा सारा फफड़ा पूरा होग्या
फेर आयो भाण रै
व्हीर होण रो बगत
जद जाण्यो मन में बेचैनी सी होयगी
सालां री पाळी-पोस्योड़ी
हंसी-खुषी में...खेलण-कूदण में
घर गली-गुवाड़ में...स्कूल खेत में
सागै रम्योड़ी
म्हारै परिवार री अभिन्न अंग
आज म्हे बांनै देरयां हां
जका म्हारै अर बींरै दोनां खातर
अणज्याणा है!
म्हें तो खरचै नै देखतां-सुणतां
चुकांवतां अठै ही रै ज्यास्यां
पण बा बिचारी
आ गुवाड़ी, आपरो घर
सखी-सहेल्यां, गुड्यां-खिलोणां
अठै री अमोलक यादां
मां-बाप, भाई-बैन
सगळां नै छोड़ दूसरै घर जा री है !
अर स्याणा-समझणां कैवै,
बींरो बो ई घर है आज सूं
जठै बा लायण किनै ही नीं जाणैं
जाणै धरती हालण लाग गी
आभो गिरवा लागगो,
हिरदै में हूक सी उठी
काळजो मूं में आवा लागगो
आंख्यां सूं चौसरा चालण ढूकगी
सांच कैऊं
खरचो, चिंता, भाजदौड़ छोड़
मैं खोसण लागगो बांनै
जका भाण नै दूसरै घर भेजण री
रीत बणाई
पण दूसरै ई पळ
रोवती बीनण्यां रो हाथ
म्हारै सिर माथै
मैसूस करयो
बीनण्यां कैवे ही -
‘रो मत बेटा!
छोरयां तो परायो ई धन हुवै।’
</poem>