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22:38, 16 जून 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
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मेरे ज़ज़्बात से खिलवाड़ को रोका जाए
ये अगर प्यार है तो प्यार को रोका जाए
मैं नहीं कहता कि व्यापार को रोका जाए
पर तिज़ारत से, मेरे यार को रोका जाए
आँख को छीनकर जो, ख़्वाब थमा देता है
वो जालसाज़ इश्तिहार को रोका जाए
कितने बच्चों के निवाले तिजोरियों में मिले
इन गुनाहों से, गुनहगार को रोका जाए
खून में सन गए हैं कुर्सियों के सब पाये
अब जरा जश्न से दरबार को रोका जाए
ढोल दिनरात तरक्की का पीटिये लेकिन
ख़ुदकुशी करने से लाचार को रोका जाए
मुझको उम्मीद है, कुछ लोग तो ये सोचेंगे
एक हद हो, जहाँ बाज़ार को रोका जाए
आस 'आनंद' की जिन्दा है, भले थोड़ी है
उसपे क़ातिल के नए वार को रोका जाए
</poem>