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22:48, 16 जून 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
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<poem>
ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी देखिये
माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये
धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी के साथ में बहकर भी देखिये
अपना ही कहा था कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये
जन्नत से देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त मेरे साथ में रहकर भी देखिये
‘आनंद’ मिल भी जाएगा वो पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये
</poem>
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