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23:03, 16 जून 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
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अब भी कुछ कहना बाकी है तुझसे मौन इशारों में
थोड़ा जीवन बचा हुआ है अब भी इन किरदारों में
हर ‘संगम’ में किसी एक को खो जाना ही होता है
बचता है बस एक अकेला फिर आगे की धारों में
जलते हैं फिर भी चलते हैं कैसे पागल आशिक हैं
जाने कैसा रोग लगा है सूरज चाँद सितारों में
नाम आत्मा का ले लेकर जीवन का सुख लूटेंगे
दुनिया ने यह बात सिखायी है पिछले त्योहारों में
मुझको यहाँ कौन पूछेगा वापस घर को चलता हूँ
जिनको है उम्मीद अभी, वो बैठे हैं बाजारों में
उनका आना या न आना उनकी बातें वो जाने
हम तो दीप जलाकर बैठें हैं अपने चौबारों में
जितनी बची हुई हैं साँसें वो ‘आनंद’ बिता लेगा
चलते-फिरते रोते-गाते यूँ ही अपने यारों में
</poem>
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