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|रचनाकार= आनंद कुमार द्विवेदी
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हरेक रिश्ता सवालों के साथ जोड़ गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया

कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया

तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ समंदर के पास छोड़ गया

मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं कुव्वत थी
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया

कहाँ से लाऊं मुकम्मल वजूद मैं अपना
कहीं से जोड़ गया वो कहीं से तोड़ गया

हर घड़ी कहता था ‘आनंद’ जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया
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