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कोयल बिकती है / रामनरेश पाठक

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|संग्रह=अपूर्वा / रामनरेश पाठक
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<poem>
कोयलें बिकती हैं
बुलबुल का गीत
तपी आंच पर भुनता है,
चकई इंगोरा निगालतीं हैं,
कोयलें बिकती हैं.
फूल पिस्ता है,
पत्थर भी डूब के गीतों को सहता है,
मरुवन में झरनों का गीत भी सिसकता है,
कोयलें बिकतीं हैं

अलकें बंधती हैं,
पलकें झुकतीं हैं,
अभिनय भी होता है,
अंजन भी अंजता है
रति भी तड़पती है,
कोयलें बिकती हैं,

कोंपल झुलसती है,
टिकोरे टूट गिरते हैं,
बांसुरी बिकती है.
शबनम पिघलती है,
पानी भांप बंटा है,
चांदनी बेसुध होती है

कोयलें बिकती हैं.
माँगों का सेनुर सिर धुनता है,
कोमल स्वर पूर्जों में पिस-पिस कर जीता है,
कफ़न भी पैसे से मिलती है,
कोयलें बिकती हैं!
</poem>
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