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सवाल / मदन गोपाल लढ़ा

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|संग्रह=चीकणा दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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<poem>
चाळीसां चढ़तो कोई प्रेमी
कांई तो करैला बात
आपरी प्रीत सूं
स्यात पूछैला बै ई सवाल
जका पूछूं- म्हैं थारै सूं
आथण-दिनूगै।

पूछूं म्हैं-
म्हारो टिफण घाल दियो कांई?
पूछूं म्हैं-
आज बजार सूं कांई लावणो है?
पूछूं म्हैं-
टाबर नैं दवाई दे दीवी कांई?
पूछूं म्हैं-
थारी कमर रो दरद कींकर है अबै?

म्हारा तो म्हारा
थारा सवाल कठै न्यारा है!

पूछै थूं-
आथण चटणी सूं धिका लेसो कांई?
पूछै थूं-
टाबरां री फीस कद भरासो?
पूछै थूं-
अबकै आटो इत्तो मोटो कियां पिसायो?
पूछै थूं-
गणगौर पर पीरै जाय आवूं कांई?

आं सवालां में कींकर सोधै कोई
प्रीत रा अैनाण
चाळीसां ढळता-उतरतां
पाक जावै प्रीत रो फळ
जिण रै रूप-रस-गंध नैं
कथण री कोनी हुवै दरकार
धरती सूं आभै तांई
आपोआप पसर जावै
प्रीत री महक।
</poem>
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