'जोकर से...हा-हा-हा...डर गया...हो-हो-हो
देखो...मर गया...हे-हे-हे...जोकर के हाथों..' {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} भीड़ में दुःस्वप्न शाम का वक्त है तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो वहां एक भीड़ जमा हो रही है तुरत-फुरत कुछ देख लेने के लिए पंजों पर उचकते हुए लोग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं पसीजे हुए उनके चेहरे लैंप पोस्ट की रोशनी में पीले नजर आ रहे हैं तुम चौराहे पर पहुंच चुकी हो और तुम्हें पता है कि जिसे देखने वे सभी आ रहे हैं वह तुम हो जाने क्या सोचकर तुम नजरें झुकाती हो और पाती हो कि एक सूत भी तुमपर नहीं है दोनों हाथों से खुद को ढकती हुई बीच चौराहे तुम बैठ जाती हो ....यह धरती ऐसे मौकों पर कभी नहीं फटती भीड़ में तुम कोई परिचित चेहरा ढूंढ रही हो लेकिन ये सभी तुम्हारे परिचित हैं तुम्हें ही देखने आए हैं वक्त बीत रहा है लोग धीरे-धीरे बिखर रहे हैं देखने को अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है किसी रद्दी खिलौने सी तुम दुबारा खड़ी होती हो किसी से कहीं चले जाने का रास्ता पूछती हो ...चकित होती हो यह देखकर कि वह अब भी कनखियों से तुम्हें देख रहा है इतने सब के बाद भी कोई भय तुममें बाकी है बाकी है कहीं गहरा यह बोध कि यह अंत नहीं है अंधेरा गहरा रहा है और तुम्हें कहीं जाना है तेज-तेज तुम रास्ता पार कर रही हो पीछे सभी तेज-तेज हंस रहे हैं क्या इस सपने का कोई अंत है- उचटी हुई नींद में तुम मुझसे पूछती हो जवाब कुछ नहीं सूझता ....बेवजह हंसता हूं, सो जाता हूं। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} शादी वाली फिल्में खुदा को हाजिर-नाजिर मानकर की गई शादियांजल्द ही खुदा को प्यारी होती हैंऔर वे, जो की जाती हैं अग्नि को साक्षी मानकर,कभी लाल चूनर को समिधा बनाती हुईतो कभी इसके बगैर हीसत्वर गति से होती हैं अग्नि को समर्पित। इसके अलावा भी होती हैं शादियांगवाह जिनका दो दिलों के सिवायकोई और नहीं होतामगर इससे भी सुनिश्चित नहीं होताउनका दीर्घजीवनएक कृपालु अमूर्तन की जगह वहां भीबहुत जल्द एक शैतान आ विराजता है। लालच, कुंठा और ईर्ष्या के महासागर मेंएक-दूसरे से टकराती तैरती हैं शादियांपर्त दर पर्त खालीपन के भंवर मेंनाचते हुए घूमते हैं पर्त दर पर्त खालीपनफिर भी मजा यह किशादी के वीडियो जैसी बंबइया फिल्मेंहर बार हिट ही हुई जाती हैं। क्यों न हों- कहते हैं गुनीजन-यही है हमारा सामूहिक अवचेतन, क्योंकिसबकुछ के बावजूद शादी ही तो हैमानव-सृष्टि की इकाई रचने काअकेला वैध उपाय-बाकी जो कुछ भी है,लड़कपन का खेल है। सत्य वचनपर कुछ-कुछ वैसा ही, जैसे-एटमबम ही हैविश्व को सर्वनाश से बचाने काअकेला वैध उपायबाकी जो कुछ भी है,कमजोरों की बकवास है। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} एक खबर का ब्योरा बच्चे हर बार दिल लेकर पैदा होते हैंऔर कभी-कभी उनके दिल मेंएक बड़ा छेद हुआ करता हैजिसमें डूबता जाता हैपैसा-रुपया, कपड़ा-लत्ता,गहना-गुरिया, पीएफ-पेंशनफिर भी छेद यह भरने को नहीं आता। तब बजट आने से दो रात पहलेएक ही जैसे दिखते दर्जन भर अर्थशास्त्रीजब अलग-अलग चैनलों परशिक्षा चिकित्सा जैसे वाहियात खर्चों मेंकटौती का सुझाव सरकार को देकरसोने जा चुके होते हैं-ऐसे ही किसी बच्चे की मांखुद उस छेद में कूदकरउसे भर देने के बारे में सोचती है। रात साढ़े बारह बजेउल्लू के हाहाकार से बेखबरकिसी जीवित प्रेत की तरह वह उठती हैऔर सोए बीमार बच्चे कासम पर चढ़ता-उतरता गलाउतनी ही मशक्कत से घोंट डालती हैजितने जतन से कोई सत्रह साल पहलेतजुर्बेकार औरतों ने उसेउसकी अपनी देह से निकाला था। गले में बंधी जॉर्जेट की पुरानी साड़ी के सहारेनिखालिस पेटीकोट में पंखे से लटकाएक मृत शरीर के बगल मेंतीन रात दो दिन धीरे-धीरे झूलताउस स्त्री का वीभत्स शवकिसी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा नहीं रखता। आनंद से अफराए समाज मेंदुख से अकुलाई दो जिंदगियां ही बेमानी थींफिर रफ्ता-रफ्ता असह्य हो चली बदबू के सिवायबंद कमरे में पड़ी दो लाशों सेकिसी को भला क्या फर्क पड़ना था। अलबत्ता अपने अखबार की बात और हैयह तो न जाने किस चीज का कैसा छेद हैकि हर रोज लाखों शब्दों से भरे जाने के बावजूददिल के उसी छेद की तरह भरना ही नहीं जानता। शहर में नहीं, साहित्य में नहीं,संसद में तो बिल्कुल नहींपर ऐसे नीरस किस्सों के लिएयहां अब भी थोड़ी जगह निकल आती है-'पृष्ठ एक का बाकी' के बीच पृष्ठ दो परया जिस दिन बिजनेस या खेल की खबरें पड़ जाएंउस दिन नीचे पृष्ठ नौ या ग्यारह पर ....ताकि दुपहर के आलस मेंतमाम मरी हुई खबरों के साथइन्हें भी पढ़ ही डालें पेंशनयाफ्ता लोगऔर बीपी की गोली खाकर सो रहें। {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} खुशी का समय खुश रहो, खुशी का समय हैशाम को दफ्तर से घर लौटो तोखुशी की कोई न कोई खबरतुम्हारा इंतजार कर रही होती है। तुम्हारे साढ़ू ने बंगला डाल लियाएनजीओ में काम कर रही तुम्हारी सलहजरात की फ्लाइट से अमरीका निकल रही हैपड़ोस के पिंटू ने लाख रुपये में इन्फोसिस पकड़ लीशर्मा जी को मिल गया इतना इन्क्रीमेंटजितनी तुम्हारी कुल तनखा भी नहीं है। बेहतर होगा, इसी खुशी में झूमते हुए उठोऔर निकल लो किसी दोस्त के घरवहां वह अपना कल ही जमाया गयाहोम थियेटर रिमोट घुमा-घुमाकर दिखाता हैफिर महीना भर पहले ली हुई लंबी गाड़ी मेंथोड़ी दूर घुमा लाने की पेशकश करता हैलौटकर उसके साथ चाय पीने बैठोतो लगता है कृष्ण के दर पर बैठे सुदामातंडुल नहीं धान चबा रहे हैं। छुट्टियों के नाम पर झिकझिक से बचनेकिसी रिश्तेदारी में चले जाओतो लोगबाग हाल-चाल बाद में पगार पहले पूछते हैंसही बताओ तो च्च..च्च करते हैंबढ़ाकर बताओ तो ऐसे सोंठ हो जाते हैंकि पल भर रुकने का दिल नहीं करता। दरवाजे पर खड़े कार धुलवातेमोहल्ले के किसी अनजान आदमी को भीभूले से नमस्ते कर दो तो छूटते ही कहता है-भाई साहब, अब आप भी ले ही डालोथोड़ी अकड़ जुटाकर कहो कि क्यों खरीदूं कारजब काम मेरा स्कूटर से चल जाता हैतो खुशी से मुस्कुराते हुए कहता है-हां जी, हर काम औकात देखकर ही करना चाहिए। ...और औकात दिखाने के लिएउतनी ही खुशी में ईंटा उठाकरउसकी गाड़ी के अगले शीशे पर दे मारोतो पहले थाने फिर पागलखानेपहुंचने का इंतजाम पक्का। खुशी का समय हैलेकिन तभी तक, जब अपनी खुशी कान कुछ करो न कुछ कहोमर्जी का कुछ भी निकल जाए मुंह सेतो लोग कहते हैं-अच्छे-भले आदमी होखुशी के मौके परऐसी सिड़ी बातें क्यों करते हो? {{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=चंद्रभूषण}} चैटरूम में रोना दूर देस में बहुत दूरवह सुंदर घर थापैसा था, पैसे से आई चीजें थींथे जीवन के सारे उजियारे सरंजामफिर वहीं कहीं कुछ कौंधाअजब बिजूखा सा खाली घर मेंकोई खुद सेखुद-बुद खुद-बुद बोल रहा थाआईने में पीठ एक थरथरा रही थी फिर जैसे युगों-युगों तकख़ला में गूंजती हुईखुद तक लौटी हो खुद की आवाजतनहाई के घटाटोप मेंमैंने उसकोसचमुच बातें करते देखा कुछ इंचों के चैटरूम मेंलिखावट की सतरों बीचउभर रहा थाबेचेहरा बेनामकोई चारासाज़..कोई ग़मगुसार.. सुख सागर में संचित दुखकहीं कोई था जो पढ़ रहा थाचुप-चुप रो रही थी मीरादुःख उसका मेरे सिर चढ़ रहा था ठीक इसी वक्त मेरे चौगिर्दबननी शुरू हुई एक और दुनिया..और सुबह..और शाम..और पेड़..और पत्ते..और पंछी..और ही उनकी चहक देखा मैंने चौंककरवही घर वही दफ्तरवही चेहरे वही रिश्तेवही दर्पन वही मनबीत गया पल में कैसेवही-वही पन? होली का दिन थाचढ़ा था सुबह से हीजाबड़ नशा भांग कामगन थे लोगत्योहार के रंग में..सबके बीच अकेलामगर मैं रो रहा था जाने कितने मोड़ मुड़करखत्म हुई कहानीबीत गई जाने कबपरदेसी फिल्मफंसा रहा मगर मैं उसी दुनिया मेंदूर-दूर जिसकाकहीं पता भी नहीं था