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10:45, 13 जुलाई 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
भाषणों को खा रहे हैं, भाषणों को पी रहे
सब मज़े में जी रहे जी, सब मज़े में जी रहे।
आप मेरी जेब काटें या मैं पाकिट आपका
फर्क़ क्या, दोनों की कैंची साथ जब चलती रहे।
ये सियासत है, यहाँ सब चाल अपनी चल रहे
उल्टी या सीधी बहे गंगा मगर बहती रहे।
खाल मोटी है अगर तो फर्क़ उस पर क्या पड़े
पीठ वो कछुओं की है लाठी गिरे गिरती रहे।
खा रहा जूठन भले, पर खा रहा तो मुफ़त में
कौन है भूखा बताओ सब यहाँ खा -पी रहे।
</poem>
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