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10:35, 18 जुलाई 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=डी. एम. मिश्र
|संग्रह=रोशनी का कारवाँ / डी. एम. मिश्र
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
दबे पाँवों से चलकर वक़्त हर लम्हा गुज़रता था।
अभी लंबा सफ़र है कह के मैं गफलत में रहता था।
जिसे अपना समझ बैठा वो तो मेहमान का था घर,
वो ताक़त दूसरे की थी जिसे अपनी समझता था।
तुम्हारा साथ कुछ दिन के लिए बस मिल गया वरना,
बडा नीरस ये जीवन था, बडा ही बोझ लगता था।
मुझे मालूम था सूरज कभी भी डूब सकता है,
तेरी चाहत का इक दीया हमेशा साथ रखता था।
इधर आँखें मुँदी मेरी उधर चर्चे लगे होने,
वही अच्छा बताता है जो कल कुछ और कहता था।
</poem>
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