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15:46, 15 अगस्त 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार सौरभ
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<poem>
जिस कवयित्री ने अपने तमाम दिन रात
नये बिम्ब गढ़ने में लगा दिये
दुर्भाग्य कि नहीं गढ़ सकी
अपने ही ईमान को!
जिस कवि को लोगों ने झंडा थमा दिया
दबे कुचले आवाम का
बड़ा ही लालची निकला!
मैंने पढ़ी-सुनी जरूर थीं
दोनों की फुटकर कविताएँ
लेकिन खुशी है कि
खर्च नहीं हुए इनके संकलनों पर पैसे !
मैं उन संकलनों की सोच रहा हूँ
जिन पर मेरे पैसे खर्च हुए हैं
उनके रचियताओं के बारे में सोच रहा हूँ
जो बेवफा निकले अपनी ही कविताओं के!
किसी को उपहार दे दूँ
यह अक्षम्य अपराध होगा
सहेजे रखना खुद पर अत्याचार होगा
एक दिन झोले में भरकर
इन्हें बेच आउंगा
कबाड़ की दुकान पर
जो भाव मिलेगा
बिना मोल भाव स्वीकार लूँगा
डूब चुकी लागत का
जो कुछ लौट आए
वही श्रेयस्कर !
</poem>