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हम मुसाफिर हैं हमारा रास्तों से स्नेह है।है
चल रही हैं ज़िंदगी इसमें कहाँ सन्देह है।
श्वास के आवागमन में हाथ आयी उम्र केवल,
हक़ अदा करना पड़ेगा जब तलक यह देह है।
कुछ न बोया जा सके जिसमें न कुछ अँखुआ सके,
एक नीरस ज़िंदगी तो सिर्फ़ बालू-रेह है।
जेा घटा चढ़ती है ज़्यादा वो बरसती है कहाँ,
रंग उसका और होता जो बरसता मेह है।
जो मुहब्बत से चला आये वही रह ले यहाँ,
सिर्फ़ अपने वास्ते केवल नहीं यह गेह है।
</poem>
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