{{KKCatGhazal}}
<poem>
आदमी से आदमी का प्रेम जब घटने लगा।लगा
जोर तब आतंक का, अपराध का बढ़ने लगा।
प्रेम से रचना हुई तो प्रेम से ही चल सके,
सृष्टि में फिर हर तरफ़ उत्पात क्यों मचने लगा।
याद करिये भेार की पहली किरन शीतल सुखद,
चढ़ गया सूरज जो सर पर अब वही तपने लगा।
प्रेम से चाहोगे तो सब कुछ तुम्हें मिल जायगा,
वो अभागा था बिना मतलब के जो भिड़ने लगा।
था किया संचित बहुत कुछ, पर मज़ा आया नहीं,
जब दिया सब छोड़ तो सुख त्याग में मिलने लगा।
</poem>