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20:06, 26 अगस्त 2017 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अर्चना कुमारी
|अनुवादक=
|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
}}
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<poem>
जैसे कुछ टूटना
और यह अचानक नहीं होता
लगातार की गयी चोटों से
घायल भीत खोखली होकर
टुकड़ों में झरते-पड़ते
एक दिन बेआसरा छोड़कर छत को
ढह जाती है
कहने वाले बड़ी नज़ाकत से कहते हैं
अभी कुछ और दिन चलता तो अच्छा रहता
दीवारें कभी नहीं बोली
कि बहुत जोर था
उससे लिपटकर रोई रातों की सिसकन में
हाथ पटकता हुए दिल का खून
पानी होकर मेरी जड़ों में जमा है
कभी नहीं कहती दीवारें
लफ्जों के वार से कितने ताजमहल टूट गये
बनते-बनते
चुप रहने का हुनर
कीमत मांगता है
और अदायगी किश्तों में
बोलियों से रुह का सौदा करती
कतरा-कतरा ज़िन्दगी
हर शाम को उम्मीद का आंचल देती
मुस्कुराती
बीत जाती।
</poem>
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