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|रचनाकार=अर्चना कुमारी
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|संग्रह=पत्थरों के देश में देवता नहीं होते / अर्चना कुमारी
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<poem>
प्राप्य का सुख छीनती है
संकल्पों के विकल्प ढूंढे जाते हैं
स्मृतियों को स्थानापन्न करके
खोजी जाती है संतुष्टि

बिखरे हुए किस्सों को
कलाई पर गोदवाना
कंधे पर रखना हाथ दरारों के
नफ़रतों से बचने के लिए
प्रेम का स्थानांतरण संभव है क्या?

कुछ रिश्ते रखते हैं
अपना अलग हिसाब किताब
मेरे हिस्से कि किताब जलते ही
हिसाब से परे हुई ज़िन्दगी

बहुत से सवाल अनुत्तरित हैं...रहेंगे भी...
एक प्रेम शाश्वत है
और आखिरी सांस तक
प्रेम करना जरूरत मेरी

ये इस बात की गवाही है
कि मैं ज़िन्दा हूं...कि प्राप्य का अर्थ जानती हूं
अप्राप्य के मोह से मुक्त होकर!
</poem>
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