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मेरे मित्र / रामनरेश पाठक

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रात आये थे सुना मिलने
मगर दुर्भाग्य ! हम तुम मिल न पाए,
बज गए थे आठ
अधजली सिगरेट सी इस
मूर्ती मेरी तैरती सहसा नज़र के सामने
मुसका उठी है और
तुमको पत्र लिखने लग गया हूँ
कायल हूँ तुम्हारी नेकनीयत औ'
मगर तुमने सदा ही कांट बीने हैं,
रफूगर ने तुम्हारी ही गरेवाँ टाक पर रख दी,
बताओ क्या कभी ठोकर तुम्हें बेचैन कर देती नहीं है ?दिल तुम्हारा उचटता है ही नहीं कब भी ?कलम हरदम पकड़ में ही रहा करती ?बहकती नहीं है ?
प्रश्न इतने हैं
मगर उत्तर सदा -सा साधा -सा तुम स्वयं दे जाते --
"पूजो आदमी को
राजनीतिक दाँव पेंचों में नहीं इंसान बंधता
मुहब्बत ही ख़ुदा है
वही मजहब, वही भगवान जो पूजा सीखाता हो, घ्रीना घृणा का पाठ रटवाता नहीं हो,आदमी हन्दू , मुसलमान , पारसी , ईसाई
तो कतई नहीं, वह आदमी है बस,
करो पूजा, मुहब्बत भी इसी हमशक्ल की"
मगर ऐ दोस्त,
शायद भूल तुम गए हो
सजा इस आदमी को पूजने की --
बुद्ध को खाना पड़ा मांस
ईसा को पड़ी शूली, और
और गांधी को विषैली गोलियां
मंसूर को ज़िन्दा जलाया था गया !!!
आँखों से देखि देखी सुनी है औ '
तवारीख के सबक भी याद हैं तुमको
फिर भी कह रहे हो आदमी को पूजने की बात ?
मगर तुम फिर कहोगे 'आदमी पूजो'
तुम्हारी अक्ल सीधी है,
खैर, छोड़ो, जल गयी सिगरेट,
ख़त लम्बा हुआ, चाय ठंडी पद पड़ गयी
भाभी को मेरा आदाब कह देना
और मुन्नू की उधम की, खैरियत की खबर देना,
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