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<poem>
घुंधला धुंधला सा स्वप्न था वो
तुम थमी थमी मुस्कुराहटों में गुम
हाथ में कलम लिए
मुझे सोचते
मुझे गुनगुनाते
मुझ पर नज़्म लिखते

वहीं थिर गईं आँखे
वहीं स्थिर हो गया समय
सतत अविनाशी
मैं उसी स्वप्न में कैद हो गई हूँ
कि तुम चाहो
इससे अधिक कुछ चाह नही
यही निर्वाण है मेरा
यही नितांत सुख

आँखो में ठहरा ये स्वप्न
बस यही है एक शाश्वत सत्य
</poem>
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