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प्रकृति / निधि सक्सेना

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बरगद का वृक्ष देख कर
याद आते हैं बूढ़े दादा
कई हाथों से खुद को थामे
पुकारते
कि कुछ पल ठहरो
तनिक सुस्ता लो
घनी छाँव है मेरी

बाबा जैसा है पीपल
विशाल
अलौकिक
जो पतझड़ में भी
अपने कुछ पत्ते बचा लेता है
अपने बच्चों के लिए

केले का पेड़ देख कर याद आती हैं माँ
दुबली पतली
अपनी सीमित संपदा में भी
खनिजों से भरपूर खाद्य भंडार उत्पन्न कर लेतीं

अपने बगीचे में लगे नन्हे गुलाब देख
अपने बच्चे याद आते हैं
इन्हीं हाथों लगे
बढ़े
फले फूले

और पारिजात जैसे 'तुम'
हर सांझ प्रेम ओढ़ लेते
पग में असंख्य तारे बिछाते
प्रतीक्षा में पुष्प बिछाते
भावों संग खिलते बुझते
झरते
भोर से पहले बिखर जाते
किसी उदास प्रेमी की तरह

सभी रिश्तों को
प्रकृति ने कैसे
अपनी हथेली में समेटा है.
</poem>
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