Changes

{{KKCatNavgeet}}
<poem>
कंठ सूखा है धरा कासूरदास जीएक सावन चाहिएबैठ झरोखेमुजरा देख रहे हैं
शयनकक्षों किसकी खाट खड़ी चौराहेबरसे किस पर डन्डेमन्दिर में तुम्हारेभगवान सो रहेभोगा लिप्त हैं अँधेरेपन्डेक्या हुआ?कौन ले गया भर जेबों मेंआँख, खिड़की की लगी हैसड़कें-ताल-पोखरेकान नंगे नाच रहे हैं दीवार केकिसकेआइने तुमको नहीं स्वीकारये बिगड़ैल छोकरेमत देखों इन्हेंकाले मुँहजानते हालात हमबिक गए थोक मेंइस पार से उस पार के खुदरा देख रहे हैंटोपियाँ कोई पहन लोदंश धर रहे हैं छाती परपाले थे जो विषधररोज़ नयी दीवार खड़ी हैगाज गिरी है घर परकहीं धुआँ हैकहीं आग हैविश में बुझी हवाएँनामआगे-पीछे हर नुक्कड़ परकोई ओढ़ लोधमकाती शंकाएँसिर्फ हमको आदमी पावन संस्कृतियों काबखियापाक दामन चाहिये।उधड़ा देख रहे हैं।
इन जुबानों उधर पड़ोसी कीगुर्राहटलगामेंइधर शांति-पारायणथाम लो तो ठीक हैखुली हवा के लियेलोग कहने लग गए तरसते हैंआदमी बदज़ात हैघुटते वातायनफेक दोगे तुम किसे?दुष्ट-दलन कर मानवता केइन मछलियों कोताल को ?कीच में ही यदि खिलाओ तुम कमलतो बात है।कर्म इसके और उसकेकौन परखेगा यहांन्याय अन्धासत्य का चेहरासनातन चाहिये। आदतें ही कुछ बुरी हैंरक्शण की मर्यादाधरी अधर पर कभी बाँसुरी सुनते रहेज़िन्दगी भर प्यार के हीगीत गाए हैंदायरों में बँध कभीजीना नहीं सीखाहौंसलों ने पर्वतों केसिर झुकाए हैंखींच कर हम गगन चक्र भीसाधाधर दें तुम्हारी गोद शान्त सिन्धु मेंगाँव का घरआज ज्वार फिरनेह-लीपाएक आँगन चाहिये!उभरा देख रहे हैं।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader, प्रबंधक
35,130
edits