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04:09, 13 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
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<poem>
सारंगी इसलिए बनी थी
कि प्रकृति किसी कंधे की टेक ले
सुना सके
पीड़ा की तान पर
पिघलते गीत
तबला बना
इस लिए
कि वो बाँध सके
उन तानों को
अंतहीन आवर्तनों के अहाते में
जो आते-जाते उन गीतों के आघातों से
बस !
टूटने टूटने को होते
कि तभी
थाम लेता कोई
उन गिरते अहातों को
कंठ से फूटे
एक कसे हुए अलाप में
जीवन जो एक दुरूह वृत्त सा था अबतक
बन जाता एक बिंदु मात्र
और मैं तिरता - संज्ञाहीन
हद से अनहद तक के
अंतहीन में
बेपरवाह
कि तभी
कोई लहर
थमा जाती
एक मुट्ठी सितारे
यूँ तो
पथ भी मैं
पथिक भी मैं
फिर भी चलता हूँ दिन भर
कि जेब में भरे सितारे
बजते रहे
गूंजते रहे संगीत
आत्मा
इसलिए बनी थी
कि प्रकृति के गीतों को
चाहिए था
एक आसमान
</poem>
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