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08:45, 13 अक्टूबर 2017 {KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}
<poem>
मैं राख में सने हाथ लिए
अपनी दुखती कमर
जूठे बर्तनों पर झुकाये
सोचती रही, सोचती रही
कि
अबकी बार पूजा में माँ को
क्या चढ़ाऊँगी ?
राख ?
अपनी कमर का शाश्वत दर्द ?
सनातनी दारिद्र्य ?
या फिर विरासत में मिला,
दुर्भाग्यों का अक्षय पात्र?
पर बर्तन घिसते घिसते
पूजा बीत गयी
और मेरी सारी चीजें
फिर मेरे पास ही रह गयीं !
</poem>