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पूजा का अंत / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
मैं राख में सने हाथ लिए
अपनी दुखती कमर
जूठे बर्तनों पर झुकाये
सोचती रही, सोचती रही
कि
अबकी बार पूजा में माँ को
क्या चढ़ाऊँगी ?

राख ?
अपनी कमर का शाश्वत दर्द ?
सनातनी दारिद्र्य ?
या फिर विरासत में मिला,
दुर्भाग्यों का अक्षय पात्र?

पर बर्तन घिसते घिसते
पूजा बीत गयी
और मेरी सारी चीजें
फिर मेरे पास ही रह गयीं !
</poem>
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