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|रचनाकार=दिनेश श्रीवास्तव
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<poem>
आओ बतायें प्रगति का राज पथ.

कूदो कर्म भूमि में
हँसो, जब वे हँसें.
रोओ, जब वे दिखे दुखी
पहन कर के चश्मा
उनकी इच्छाओं का,
जैसी वे दुनिया चाहें,
वैसी दुनिया बताओ.
"दिल्ली दूर अस्त"
का नारा लगा, सो जाओ.

सफलता की देवी का हरण कर लो,
बाँध दो इतिहासकारों को
अपनी कुर्सी के पाए से,
पुलस्त्य के नाती बनो-
देखोगे, यम भी पावों तले होंगे.

देखोगे, प्रगति राह में
पलक पांवड़े बिछा देगी.

आओ, आओ, आ जावो,
देखो प्रगति का राजपथ.
</poem>
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