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भ्रम भंग / दिनेश श्रीवास्तव

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<poem>
वेदना सहेजते रहे
इसी आस में हम.
कि एक दिन यह हिमालय सी
खड़ी हो जाएगी.

और सोचा था कि
उसकी कोख जनम देगी
मुक्ति दायिनी गंगा को.

वेदना हमारी किन्तु
मरुस्थल सी फ़ैल गयी
लील गयी निर्मम वह
निरीह सरस्वती को भी,
चेतना भी न बची
कौन राह दिखलाये?
</poem>
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