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11:26, 13 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दीपिका केशरी
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<poem>
औरतें चावल साफ करते हुए
इतनी ध्यान मग्न होती हैं कि लगता है जैसे
अपने ईश्वर के प्रार्थना में डूबे हुए
अपने ईश्वर से कह रही हो
कि सुनो ईश्वर
तुम्हारे हिस्से के कंकड़ मैं चुन रही हूँ
तुम मेरे हिस्से के कंकड़ चुन लेना,
तुम्हारे होने में से किसी और का होना
फटक कर निकाल रही हूँ
अब जहाँ तुम हो वहाँ बस तुम ही हो !
इतना कहकर साफ चावल का एक दूसरा ढ़ेर बनाती हैं औरतें,
वहीं दूसरी तरफ
ईश्वर मंद मंद मुस्कुराता हुआ सोचता है
कितनी सरल हो तुम
चावल से कंकड़ ऐसे निकाल रही हो
जैसे
जीवन से पीङा चुन कर बाहर निकाल रही हो
कितनी सरल हो तुम
मेरे होने को बनाऐ रखने के लिए कितना जतन करती हो
ये सोचता हुआ ईश्वर
पसीज कर पसीना बन
चावल साफ कर रही औरतों के माथे से आँखों में टपक आता है
आँखें खारी हो जाती है तब ईश्वर का होना
औरत अपने आंचल से पोछ लेती है !
</poem>