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10:27, 14 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राकेश पाठक
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<poem>
मैं स्त्री कहता हूँ
तुम देह सोचते हो
मैं देह कहता हूँ
तुम विमर्श लेकर खड़े हो जाते हो
पुरुष और परम्परा के हवाले के साथ
दरअसल यह देह है क्या ?
तुम्हारा ही रचा-गढ़ा प्रपंच ही तो है ?
स्त्री के सुहाग सौदर्य के निमित्त
स्त्री के लिए
खींची गयी कोई नपुंसक रेखा
पितृक पुरुषोक्त परम्पराओं के नाम पर स्त्री ?
और सृजन के नाम पर देह क्यों ?
तुम कहते हो जड़ता है स्त्री
और चैतन्य है देह
जड़ और चैतन्यता के बीच फिर क्या ?
अपनी मनमर्जी से गढ़
थोप देते हो नियम दूसरे के माथे
स्त्री से क्षणिक सुख और देह की पिपासा में
स्त्री की स्वच्छंदता में भी
मौलिक जड़ता चाहते हो तुम
क्यों आखिर ?
देह में सृजन के उच्छवास देख
ऋचाओं के गीत और हल्दी के उबटन में
कर देते हो सौदा
मेरे देह का ही तो ???
स्त्री को मान्यताओं और रिवाजों में गूथ
सिर्फ इस लिए चौखट में बांध आते हो हमें
ताकि स्त्री और देह के दर्प को रौंद सके बलशाली हाथ
दरअसल वो बलशाली हाथ नहीं है
अबलों की कुंठा की
भरभरायी हुई जमीर का टूटन अंश है सुहाग के देह का रौंदना
स्त्री को शास्त्रों और मिथकों में बांध
जीवनपर्यन्त की जिस गुलामी में बांध रखे हो न
अब वह उन्मुक्त हो बदल रही है मान्यताएँ
जब तुम देह की बात करते हो
तो घृणा से भर जाता हूँ मैं
जब जना तो बच्ची के देह की परिभाषा अलग गढ़ी
कैशोर्य हुई तो और अलग
मेरे युवापन में
मेरे जिस्म की मादकता को देख
देह-त्रिभुज के तिलिस्म में उलझा
मुझे स्त्री भी कहाँ रहने दिया तुमने ??
देह को सौंप स्त्री बना
रौंद कर माँ बनाने की जिस प्रक्रिया के तेरे शास्त्र समर्थन करते है न ?
आज थूक रही हूँ उसपर मैं
जटाजूट के लिंग पर
हर उस स्त्री का स्पर्श
उस देह का मान मर्दन है
अतः आज मैं एक स्त्री के नाते
उस पोषित शपथ का प्रतिकार करती हूँ
उस पलित परम्पराओं का प्रतिकार करती हूँ
स्त्री के शापित शरीर की छिन्मस्तिका का उपहास करती हूँ
जिसके उपसंहार में स्त्री कोख का पुंसवन है !
</poem>
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