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<poem>
स्मृतियों का एक पूरा जंगल उग आया है मुझमे.

एकदम ताज़ा !

और उतनी ही हलचल भरा
जितना कोई निराश प्रेमी हो सकता है
अपने एकांत के क्षणों में.

जितने मूर्त हो सकते हैं परजीवी मृत त्वचा पर.
और जितने अमूर्त हो सकते हैं वैलेंटाइन्स डे के हमारे प्रगाढ़ चुम्बन.

एक आदमकद आईने में एक बार खुद को देखा था बहुत ग़ौर से.
देखते-देखते मालूम हुआ कि मुझमें सीढियां हैं बहुत से दुखों की.
जिनके दैत्य मुझे न कोई सांत्वना देते हैं.
न चांदनी की शीतल चाशनी.

इसलिए मैं डूबती जाती हूँ
अपनी उत्तेजना के कवच में.

ठंडी होती जाती हूं
बर्फ का फूल की तरह.

मेरे जिस्म पर उगी आँख भी
स्वप्न में खून बहाती है
और वो जम जाता है मेरी गर्म मुट्ठियों में.

मेरा स्वप्ननायक मार्क्स की विचारधारा में औंधे मुँह गिर कर लहूलुहान है.
किसी प्राचीन लड़ाई का अंत वह टुकड़ों में करना चाहता है.
बुद्धम शरणम गच्छामि के खंडरों में भटकते हुए.

एक पल रुक कर मैं देखती हूँ
उसी आदमकद आईने में
जब लॉन्ग वॉक हॉक स्ट्रीट पर पहली बार
अचानक और बेपरवाह हुए
मेरी सहमी पीठ पर
तुम्हारे हाथों की कंपन ने मेरी आत्मा को बेतरतीब किया था.

उस कंपन की आँखें अभी तक नहीं झपकी हैं !
</poem>
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