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अपनी मेज की निचली दराज में मुझे एक पत्र मिला जो पहली बार छब्बीस साल पहले पहुंचा था. घबड़ाहट में लिखा गया एक पत्र, जो अब भी सांस ले रहा है जब यह दूसरी बार पहुंचा है.

एक मकान में पांच खिड़कियाँ हैं: उनमें से चार से होकर दिन की रोशनी साफ़ और स्थिर चमकती है. पांचवी के सामने काला आसमान, बिजली की गड़गड़ाहट और तूफ़ान है. मैं पांचवी खिड़की पर खड़ा होता हूँ. वह पत्र.

कभी-कभी मंगलवार और बुधवार के बीच एक अगाध गर्त खुल जाता है मगर छब्बीस साल एक पल में गुजर सकते थे. समय कोई सीधी रेखा नहीं है, यह एक भूलभुलैया जैसा है, और यदि तुम दीवार पर सही जगह कान लगाओ तो तुम तेज चलते क़दमों और आवाजों को सुन सकते हो, तुम अपने आप को दूसरी तरफ चलता हुआ सुन सकते हो.

क्या उस पत्र का जवाब कभी दिया गया था? मुझे याद नहीं, यह बहुत पहले की बात है. समुद्र की असंख्य सीमारेखाएं प्रवास करती रहीं. ह्रदय ने पल-पल कूदना जारी रखा, अगस्त की एक रात गीली घास में मेढक की तरह.

अनुत्तरित पत्रों का ढेर लगता जाता है, बर्फ के कणों से बने पतले बादलों की तरह खराब मौसम का आभास देते हुए. वे सूर्यकिरणों को कांतिहीन कर देते हैं. एक दिन मैं जवाब दूंगा. एक दिन जब मैं मर जाऊंगा और आखिरकार ध्यान केन्द्रित कर सकूंगा. या कम से कम यहाँ से इतनी दूर कि मैं खुद को फिर से पा सकूं. जब मैं नया-नया आया बड़े शहर में घूम रहा हूँ, १२५वीं सड़क पर, तेज हवा में नाचते हुए कचरे की सड़क पर. मैं जो भटकते फिरना और भीड़ में गायब हो जाना पसंद करता हूँ, पाठ के अंतहीन ढेर में एक कैपिटल टी.

'''(अनुवाद : मनोज पटेल)'''
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