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10:34, 19 अक्टूबर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=सुरेश चंद्रा
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|संग्रह=
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<poem>
आईने के रंग, चटखने लगते हैं
चुभने लगता है, चेहरे का सच
बदन टोक देता है, मन की हर हरकत
पाँव पर बोझिल होती हैं, मुट्ठी भर ख़्वाहिशें
आधी रात, उम्र के हिसाब पर, चौंक उठती है नींद
घर लौटते, नुक्कड़ पर हाँफता है, एक थका-मांदा दिन
जिस्म को शाम की खूंटी पर टाँग कर, हंस देता है वजूद
ज़िंदगी के बीच वाले सफहे पर, आधी बची उम्मीद लिखता हुआ
वही सुबह वैसी नहीं रहती, नहीं रहती शाम भी उसी तरह की
कितना कुछ बदल जाता है, बस आधे ही सफर मे
जकड़ती नसें, गड्ड मड्ड कर देती हैं, आँखों की पुतलियाँ
हंसी दब कर रह जाती है, दायीं तरफ खिसक कर
बाईं तरफ का दर्द भी, मीठा नहीं रह जाता
पसीना यकलख्त छलछला आता है, पेशानी पर
आधी ज़िंदगी बीत जाने के बाद
</poem>