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<poem>
हमने स्त्री पर सबसे अच्छी कविताएँ मुखौटे पहनकर लिखीं
हमने सबसे ज़्यादा त्रियाचरित्र इन मुखौटों में रहकर रचा
हमने सर्वाधिक कविताएँ स्त्रियों के सौंदर्य पर लिख छल रचा

जब रात अपनी योनि में लोरियाँ इकट्ठा करती थी
तब हमने प्रेम करते हुए प्रेम कविताएँ लिखीं
तब भोर के सिलबट्टे पर कितनी ही देह पीस दी गयी थी
उसी रात माथे पर पसीने की चुहल, एक कोख में स्खलित हुई थी
हाथों में फड़फड़ाते तितलियों के कितने पंख तोड़े थे हमने
तब भी सृजन की कोख के नाम पर कविता पाठ कर रहे थे हम

स्त्रियाँ कविता नही सुनना चाहती
स्त्रियाँ कविता लिखना चाहती हैं
स्त्रियाँ मुखौटे पहनना नही चाहती...
स्त्रियाँ मुखौटे उतारना चाहती हैं
पुरुषों के अंदर भी योनि का दाक्षागृह निसृत करना चाहती है स्त्री उसी छल और मुखौटे के साथ.
</poem>
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