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परछाईं / राकेश पाठक

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प्रतिपल प्रतिक्षण
साथ निभाती
संग-संग चलती यामिनी
ओ गामिनी
कुछ देर ठहर, रुक जा
हो जा स्वच्छंद
और कर दे मुक्त मुझे भी
अपने उस बंधन से
जो प्रतिविम्ब बन मेरा
जकड़ रखी जंज़ीरों से

जंज़ीरों की ये कड़-कड़
मुझे तन्हाई की राग भैरवी गाने नहीं देती
ओ मेरी परछाईं
छोड़ दे संग-संग चलना
जी ले अब अपना जीवन
पी के मधुप्रास

शांत उदात्त रात्रि के बीच
टिमटिमाता एक छोटा सा पिंड भी
घोर कालरात्रि में
तेरे अस्तित्व बोध के लिए काफ़ी है!

भले तेरा अस्तित्व मुझ से है
मेरे बाह्यरूप को साकार करती
ओ परछाईं!
ठहर और उड़ जा
हो जा स्वच्छंद
अज्ञात
उस अतीत के सीमा से परे
कोसों दूर
जहाँ स्वत्व के खोज में
तथागत ताक रहा
गुनगुना रहा
बुद्धं शरणम् गच्छामि
संघम शरणम् गच्छामि
</poem>
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