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|रचनाकार=जया पाठक श्रीनिवासन
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<poem>
शहर की दीवारें
साथ लाती परिवारों को
देती एक छत
देती हमारे स्व को
परिभाषा, परिधि और आकार
बनती एक अवलंब
सर टिकने को
या बांटती भाइयों को,
तोड़ती घर
बनती राजनीतिक पोस्टरों की आधार,
धार्मिक उन्मादों का फ्रेम,
बॉलीवुड का फोटो-पहचानपत्र,
या भारतीय पुरुष की पहचान
फिर वह पान की पिच्च हो
या लघुशंकाओं की मार
सब झेलती...
सच!
ये दीवारें कितनी हम जैसी हैं
सब चलता है इनपर
किन्तु कोई प्रतिकार नहीं...
भारतीय दीवारें खड़ी रहती हैं
यूँ ही
पहचान या प्रमाण बन
हमारे समाज की
</poem>
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