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श्रम के दो हाथों पे / ब्रजमोहन

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श्रम के दो हाथों पे नाचे ये संसार रे
फ़ौलादी सीनों से उठते हैं जीवन के ज्वार रे ...
पर्वत हँसता, सागर हँसता, हँसता है तूफ़ान
तूफ़ानों की छाती पर चढ़ हँसता है इनसान
जीवन है कश्ती तो फिर श्रम है पतवार रे ...
 
पैसा चलता चाल हंस की जब अपनी ही भूल
श्रम के पाँव चटाते उसको तब दुनिया की धूल
जीवन की भट्टी में हैं श्रम के अंगार रे ...
 
श्रम के बीजों से उगती है जीवन की मुस्कान
श्रम की सबसे सुन्दर रचना है देखो इनसान
श्रम ही है निर्माता और श्रम ही संहार रे ...
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