{{KKRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|अनुवादक=मनोज पटेल
|संग्रह=
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[[Category:तुर्की भाषा]]
<poem>
घुटनों-घुटनों बर्फ बर्फ़ वाली एक रात को शुरूआत हुई थी मेरे इस अभियान की --—खाने की मेज मेज़ से खींचकर,
पुलिस की गाड़ी में लादा जाना,
फिर रेलगाड़ी से रवाना करके
एक कोठरी में बंद बन्द कर दिए दिया जाना.उसका नौवां नौवाँ साल बीता है तीन दिन पहले.पहले।
बरामदे में स्ट्रेचर पर पीठ के बल लेटा एक आदमी
मर रहा है मुहं मुँह बाए हुए,कैद क़ैद के लम्बे समय का दुख है उसके चेहरे पर. पर।
याद करता हूँ मैं,
अकेलापन जैसे किसी पागल या मृतक का :
शुरूआत में, एक बंद बन्द दरवाज़े की
छिहत्तर दिनों की मौन अदावत,
फिर सात हफ़्तों तक एक जहाज जहाज़ के पेंदें में.पेंदे में।
फिर भी मैनें हार नहीं मानी थी :
मेरा सर
मेरे पक्ष में खड़ा एक दूसरा इंसान था.इनसान था।
चाहे जितनी बार वे कतारबद्ध खड़े हुए हों मेरे सामने,
मैं उनमें से ज्यादातर ज़्यादातर के चेहरे भूल गया हूँमुझे याद है तो सिर्फ सिर्फ़ एक लम्बी नुकीली नाक.जब मुझे सजा सज़ा सुनाई जा रही थी, उन्हें एक ही चिंता चिन्ता थी : कि रोबदार दिखें वे.वे। मगर वे ऐसा दिखे नहीं.नहीं।वे इंसानों इनसानों की बजाए चीजों चीज़ों की तरह नजर नज़र आ रहे थे :
दीवार घड़ियों की तरह, मूर्ख
व घमंडीघमण्डी,
और हथकड़ियों-बेड़ियों की तरह उदास और दयनीय.
जैसे बिना मकानों और सड़कों के कोई शहर.
ढेर सारी उम्मीद और ढेर सारा दुख.
फासले फ़ासले बहुत कम.चौपाया प्राणियों में सिर्फ बिल्लियाँ.सिर्फ़ बिल्लियाँ।
मैं वर्जित चीजों चीज़ों की दुनिया में रहता हूँ !जहां जहाँ वर्जित है : अपनी महबूबा के गालों को सूंघना. सूँघना। जहां जहाँ वर्जित है : अपने बच्चों के साथ एक ही मेज मेज़ पर बैठकर भोजन करना.करना।जहां जहाँ वर्जित है :
बीच में सींखचों या किसी चौकीदार के बिना
अपने भाई या माँ से बात करना.करना।जहां जहाँ वर्जित है :
अपनी लिखी किसी चिट्ठी को चिपकाना
या चिपकाई हुई किसी चिट्ठी को पाना.पाना।जहां जहाँ वर्जित है : सोने जाते समय बत्ती बुझाना. बुझाना। जहां जहाँ वर्जित है : चौपड़ खेलना. खेलना।
और ऐसा नहीं है कि यह वर्जित नहीं है,
मगर जो आप छिपा सकते हैं अपने दिल में या जो आपके हाथ में है
वह है प्यार करना, सोचना और समझना. समझना।
बरामदे में स्ट्रेचर पर पड़े आदमी की मौत हो गई.गई।वे उसे ले गए कहीं.कहीं।
अब न तो कोई उम्मीद और न ही कोई दुख,
न रोटी, न पानी,
न आजादीआज़ादी, न कैदक़ैद,
न स्त्रियों की हसरत, न चौकीदार, न खटमल,
और कोई बिल्ली भी नहीं बैठकर उसे ताकते रहने के लिए.
वह धंधा धन्धा तो अब खलास, ख़तम.ख़तम।
मगर मेरा काम तो अभी जारी है :
20 जनवरी 1946
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : मनोज पटेल'''
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