डरता है कि देर हुई है उससे,
रोता है,
चूमता है उसके मजबूत मज़बूत हाथ,
प्रार्थना करता है
कि अवश्य अवश्य ही रहे कोई-न-कोई तारा उसके ऊपर ।
क़समें खाता है
कि बर्दाश्त बर्दाश्त नहीं कर सकेगा तारों रहित अपने दुख ।
और उसके बाद
चल देता है चिंतितचिन्तित
लेकिन बाहर से शान्त ।
कहता है वह किसी से,
अब तो सब कुछ ठीक है ना ?
डर तो नहीं लगता ?
सुनिये सुनिए !
तारों के जलते रहने का
कुछ तो होगा अर्थ ?
हर शाम छत के ऊपर
चमकना कम-से-कम एक तारे का ?
'''मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह'''
</poem>