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14:02, 21 नवम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजीव भरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
बतला रहा हूँ यूं तो मैं सब कुछ सही सही
तफ़सीले-वाक़यात मगर फिर कभी सही
उसने कबूतरों को भी आज़ाद कर दिया
ख़त की उमीद छोड़ दी मैंने रही सही
वैसे तो कहने सुनने को कुछ भी नहीं मगर
मिल ही गये हैं आज तो कुछ बात ही सही
उसके भी ज़ब्तो-सब्र का कुछ एहतराम कर
जिसने तमाम उम्र तिरी बेरुख़ी सही
इस दिल का ये मरज़ तो पुराना ही है हुज़ूर
तशखीस इस मरज़ की भले ही नयी सही
मक़सद तो दिल का हाल जताना है दोस्तो
गर क़ूवते-बयान नहीं, खामुशी सही
पत्तों का आँधियों में बिखरना नया नहीं
इस बार आँधियों की वज़ाहत नयी सही
हम आपके बग़ैर जिये और ख़ुश रहे
अच्छा ये आप समझे हैं? अच्छा यही सही
मन का पपीहा प्यासा का प्यासा ही रह गया
क़िस्मत में इसकी प्यास ही लिक्खी हुई सही
</poem>