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|रचनाकार=राजीव भरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
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आईना ही जब झूठा हो जाता है
तब सच कहने से भी क्या हो जाता है

अम्न की बातें इस माहौल में मत कीजे
ऐसी बातों पे झगड़ा हो जाता है

आँगन में इतनी बारिश भी ठीक नहीं
पाँव फिसलने का खतरा हो जाता है

मिलना जुलना कम ही होता है उनसे
बात हुए भी इक अरसा हो जाता है

आओ थोड़ा झगड़ें, कुछ तकरार करें
इन सब से रिश्ता गहरा हो जाता है

इतनी सी ये बात कोई समझा ही नहीं
जिसको अपना लो, अपना हो जाता है

जी भारी भारी सा है, रो लेते हैं
रो लेने से जी हल्का हो जाता है

जादू है कुछ चारागर के हाथों में
ऐसे थोड़ी दर्द हवा हो जाता है

वक़्त सुखा देता है नदिया, ताल सभी
धीरे धीरे सब सहरा हो जाता है
</poem>