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14:13, 21 नवम्बर 2017 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजीव भरोल
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[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
उसे उसी की ये कड़वी दवा पिलाते हैं
चल आइने को ज़रा आइना दिखाते हैं
गुज़र तो जाते हैं बादल ग़मों के भी लेकिन
हसीन चेहरों पे आज़ार छोड़ जाते हैं
खुद अपने ज़र्फ़ पे क्यों इस कदर भरोसा है
कभी ये सोचा की खुद को भी आजमाते हैं
वो एक शख्स जो हम सब को भूल बैठा है
मैं सोचता हूँ उसे हम भी भूल जाते हैं
अगर किसी को कोई वास्ता नहीं मुझसे
तो मेरी ओर ये पत्थर कहाँ से आते हैं
तुम्हारी यादों की बगिया में है नमी इतनी
टहलने निकलें तो पल भर में भीग जाते हैं
तेरी चुनर के सितारों की याद आती है
अँधेरी रात में जब दीप झिलमिलाते हैं
अब इस कदर भी तो भोले नहीं हो तुम 'राजीव'
तुम्हें भी सारे इशारे समझ तो आते हैं
</poem>